सूर्य साक्षात परमात्मस्वरूप हैं| शास्त्र एक स्वर से इनकी वंदना, अर्चना को मानव क परम कर्तव्य बतलते हैं| सूर्य से ही सभी रितुएँ होती है| सूर्य को ही कालचक्र का प्रणेता और प्रणवरूप माना गया है| सूर्य से ही सभी जीवन उत्पन्न होते हैं| सभी योनियों मे जो जीव हैं, उनका आविर्भाव, प्रेरणा-पोषण आदि सब सूर्य से होते हैं और अंत मे सभी जीव उन्ही मे विलीन हो जाते हैं| इसलिए उनकी उपासना करनी चाहिए| भगवान सूर्य का गायत्री मंत्र यह है-:
“ऊँ आदित्याय विदमहे दिवाकराय धीमहि तन्न: सूर्य: प्रचोदयात|”
सूर्य का एक नाम आदित्य भी है| आदित्य से अग्नि, जल,वायु, आकाश तथा भूमि की उत्पत्ति हुई है| सूर्य ही हमारे मन, बुद्धि, चित,अहंकार आदि के रूप मे व्याप्त हैं|हमारी पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ व कार्मेन्द्रियाँ को भी वे ही प्रभावित करते हैं|
सूर्य को भगवान कहते हैं| वास्तव में वे इस सोरमंडल में भगवत्स्वरूप हैं| संपूर्ण ब्रह्मांड में जो कार्य भगवान करते हैं, इस सोरमंडल में सूर्य की भी वही स्थिति है और ततस्म कृति है|वेद में आए सारे देववाची नाम अंत में परमेश्वर की स्तुति करते हैं, क्योंकि प्रत्येक देव के गुण की अंतिम प्रकाष्ठा उसी में सार्थक होती है|
सूर्य के उदय के साथ ही जगत के कार्य प्रारंभ होते हैं| सूर्य ही दिन-रात और ऋतु-चक्र के नियामक हैं| सूर्य के उष्मा के बिना वानस्पतियाँ पक नही सकतीं, अन्न उत्पन्न नही हो सकता और परिनामतः प्राणधारी प्राण को धारण नही कर सकते|
सूर्य की किरणओं मे मनुष्य के लिए उपयोगी सब तत्व विधमान हैं| सब रोगों और दुरीतों को दुर करने की शक्ति है| सूर्य का सुचारू रूप से सेवन करने वाले को कभी किसी विटामिन को खाने की ज़रूरत नही पड़ेगी|
अगर उदित होते हुए सूर्य का नियमित सेवन किया जाए तो हृदय और मस्तिष्क के सब विकार नष्ट हो जाते हैं|
भगवान सूर्य हमारे अभय्युदय एवं निह: श्रेयंश, दोनो के कारण हैं| वे हमारी उपासना के मूल बिंदु हैं| इसी प्रकार मंत्रशास्त्रों मे भी उनके अनेक मंत्र प्रतिपादित हैं, जिनके अनुष्ठान से आध्यात्मिक, अधिदेविक और अधिभोतिक- सभी प्रकार की पीड़ाओं से मुक्ति पाकर हम सुखी और कृतार्थ बन सकते हैं|
अतः इस सोर साधना वर्ष में स्सभी साधकगण भगवान सूर्य की उपासना अवश्य करें|