होली बुराई पे अच्छाई की जित का त्यौहार है। इसमे जितना रंग का महत्त्व है उतना ही उससे पहले होने वाले दहन जिसे होलिका दहन केनाम से जाना जाता है उसका महत्त्व है। होलिका दहन मार्च के 12 तारीख को है। इसलिए आज हम होलिका दहन से जुड़े कुछ खास बातों के बारे में जानेंगे।
होली और होलिका दहन भारत के सभी जगहों पे बड़े ही धूम-धाम से मनाई जाती है। होलिका दहन के दिन सभी लोग अपने इच्छाओं को लेकर उस दिन जलने वाले दहन में अपनी बुराई को अग्नि देव को समर्पित करते हैं। इसे मानाने के पीछे एक पौराणिक कथा भी हैं।
होलिका दहन की कहानी:
शास्त्र के अनुसार संध्या के समय होली के पूर्व यानि की फाल्गुन शुक्ल चतुर्दशी को होलिका दहन मनाया जाता है। इसी दिन राक्षस राज हिरण्यकश्यपु की बहन होलिका ने श्री हरी भक्त प्रह्लाद को अपने साथ अग्नि में लेकर बैठी थी, क्योंकि होलिका को वरदान था की उसे अग्नि कुछ नहीं कर सकती। लेकिन वरदान का यदि गलत उपयोग किया जाये तो उसका दंड तो भुगतना ही पड़ता है। इसलिए जब अग्नि में होलिका और प्रह्लाद ने प्रवेश किया तो होलिका का नाश हुआ और प्रह्लाद और सच्चाई की जित हुई।
होलिका दहन की परंपरा:
होलिका दहन होली मानाने के एक दिन पूर्व संध्या के समय मनाया जाता है। इस दिन लकड़ियों को जलाया जाता है और उस अग्नि की पूजा की जाती है। अग्नि जिसमे सभी को भस्म करने की क्षमता है, इसलिए इसे बुराई पे अच्छाई की विजय का प्रतिक के रूप में माना जाता है। होलिका का एक और महत्त्व है। इस दिन होलाका नाम का अन्न(जिसे संस्कृत में खेत में पके, आधे कच्चे-आधा पके फसल) को अग्नि को प्रसाद के रूप में समर्पित किया जाता है।
महत्व होलिका दहन का:
होलिका दहन के लिए सभी जगहों पे लोग एक महीने पूर्व से ही तैयारी करना शुरू कर देते हैं। जिसमे लोग सुखी लकड़ियों, पत्ते इकठ्ठा करते हैं और उसके बाद होलिका दहन के दिन उन लकड़ियों, पत्तों को जलाया जाता है और मन्त्र का उच्चारण किया जाता है। तत्पश्च्यात अगले दिन उसकी भस्म को नहाने के पूर्व लगाया जाता है।