भगवान परशुराम जी का जन्म अक्षय तृतीया पर हुआ था इसलिए अक्षय तृतीया के दिन परशुराम जयंती मनाई जाती है. परशुराम जी की गणना दशावतारों में होती है. परशुराम जयंती पर विशेष जानकारी दे रहे हैं  पंडित अरुण मिश्रा 

भगवान परशुराम स्वयं भगवान विष्णु के अंशावतार हैं. वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र में रात्रि के प्रथम प्रहर में उच्च के ग्रहों से युक्त मिथुन राशि पर राहु के स्थित रहते माता रेणुका के गर्भ से भगवान परशुराम का प्रादुर्भाव हुआ था . अक्षय तृतीया को भगवान परशुराम का जन्म माना जाता है. इस तिथि को प्रदोष व्यापिनी रूप में ग्रहण करना चाहिए क्योंकि भगवान परशुराम का प्राकट्य काल प्रदोष काल ही है. इस बार 18 अप्रैल 2018 को परशुराम जयंती मनाई जाएगी.

भगवान परशुराम महर्षि जमदग्नि के पुत्र थे. पुत्रोत्पत्ति के निमित्त इनकी माता तथा विश्वामित्र जी की माता को प्रसाद मिला था जो देव शास्त्र द्वारा आपस में बदल गया था . इससे रेणुका का पुत्र परशुराम जी ब्राह्मण होते हुए भी क्षत्रिय स्वभाव के थे जबकि विश्वामित्र जी क्षत्रिय कुल में उत्पन्न होकर भी ब्रह्मर्षि हो गए . जिस समय इनका अवतार हुआ था उस समय पृथ्वी पर क्षत्रिय राजाओं का बाहुल्य हो गया था . उन्ही में से एक  राजा ने उनके पिता जमदग्नि का वध कर दिया था, जिससे क्रुद्ध होकर इन्होंने 21 बार  दुष्टों राजाओं से पृथ्वी को मुक्त किया. भगवान शिव के दिए हुए परशु अर्थात फरसे को धारण करने के कारण इनका नाम परशुराम पड़ा .

आज के दिन व्रती नित्य- कर्म से निवृत्त हो प्रातः स्नान करके सूर्यास्त तक मौन रहे और स्नान करके भगवान परशुराम की मूर्ति का षोडशोपचार पूजन करें तथा रात्रि जागरण कर इस व्रत में श्री राम-मंत्र का जप करना  सर्वश्रेष्ठ होता है . ऐसा करने से पुण्य का भागी बना जा सकता है.

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सफलता के लिए समय पर सही निर्णय लेना जरूरी है. सफलता और असफलता में निर्णय लेने की कुशलता का बड़ा महत्व है. ऐसे में आज गुरूजी विनोद भारद्वाज बता रहे हैं क्यों जरूरी है सही निर्णय लेना. साथ ही वे बताएंगे कौन से हैं वे लोग जो समय पर सही निर्णय नहीं ले पाते.

ये लोग सही निर्णय नहीं ले पाते-

 

    • जिन लोगों का मुख्य ग्रह कमजोर होता है वो सही निर्णय नहीं ले पाते हैं.
    • जिन लोगों का चंद्रमा खराब होता है वो सही निर्णय नहीं ले पाते हैं.
    • ऐसे लोगों के निर्णय लेने की क्षमता में आत्मबल की कमी होती है.
    • चंद्रमा खराब होने पर दूसरों की सलाह झूठी लगती है.
    • चंद्रमा खराब होने पर व्यक्ति बड़ा निर्णय लेने में तनाव में आ जाता है.
    • चंद्रमा खराब होने पर व्यक्ति जीवनसाथी तक की सलाह पर शक कर सकता है.
    • चंद्रमा खराब होने पर व्यक्ति बिना जरूरत के निर्णय बदलते रहता है.

 

अच्छे निर्णय लेने के उपाय –

 

    • जिनकी बृहस्पति या चंद्रमा मजबूत हैं उनसे सलाह लेकर निर्णय करने से लाभ होता है.
    • ध्यान करने से निर्णय की क्षमता विकसित होती है.
    • जब भी दुविधा में हो तो उत्तर-पूर्व के मध्य की ओर मुंह करके ऊं का जप करें.
    • ईश्वर को आराध्य मानकर आत्मबल से निर्णय लें.
    • कोई बड़ा निर्णय लेना हो तो गुरु के शरण में जाएं.
    • निर्णय लेने में दिक्कत आती है तो मौन रखा करें.
    • दिन में निर्णय लेने से से पहले गहरी सांस लें, बाएं नथुने से सांस भरते समय लिया गया निर्णय सही होता है.
    • रात में निर्णय लेने से पहले गहरी सांस लें, दाएं नथुने से सांस भरते समय लिया गया निर्णय सही होता है.
    • निर्णय लेते समय मन को शांत रखें.

 

गलत निर्णय से बचने का उपाय –

 

    • क्रोध और धैर्यहीनता में निर्णय ना लें.
    • मेष, मिथुन, कन्या, मीन लग्न में बड़ा निर्णय ना लें.
    • बड़ा निर्णय वृषभ, सिंह और वृश्चिक लग्न में लें.

 

गलत निर्णय की रेखाएं-

 

    • अगर हथेली की अपेक्षा उंगलियां छोटी हो तो आपका निर्णय सही नहीं होगा.
    • अगर उंगलियां हथेलियों की अपेक्षा ज्यादा बड़ी हो तो निर्णय सही नहीं होगा.
    • अगर अंगूठा छोटा हो तो निर्णय बहुत गलत सिद्ध होता है.
    • अगर अंगूठा आगे की ओर झुका रहता है तो निर्णय गलत होते हैं.
    • अगर आपका उंगलियां पतली हो और आगे की तरफ झुकी हो तो व्यक्ति निर्णय लेने में सक्षम नहीं होता.
    • अगर बृहस्पति की उंगली से सूर्य की उंगली छोटी हो तो निर्णय लेने का साहस नहीं होता है. ऐसे लोगों को नियमित गायत्री का यज्ञ करना चाहिए. ऐं क्लीं नमस चंडिकाये का जप करें. ध्यान करें.

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जिस ग्रह की दशा के प्रभाव में हम होते हैं, उसकी स्थिति के अनुसार शुभाशुभ फल हमें मिलता है. जब भी कोई ग्रह अपना शुभ या अशुभ फल प्रबल रूप में देने वाला होता है, तो वह कुछ संकेत पहले से ही देने लगता है. इनके उपाय करके बढ़ी समस्याओं से बचा जा सकता है. आइए जानें…

ज्योतिष शास्त्र में मंगल को सेनापति माना गया है. मंगल की प्रधानता वाले जातक साहसी, स्वस्थ और आकर्षक व्यक्तित्व वाले होते हैं. ये अपने सिद्धांतों एवं निर्णयों पर अडिग रहते हैं.

मेष, मंगल, वृश्चिक राशि के स्वामी होते हैं. मंगल के अशुभ होने के पूर्व संकेत भूमि का कोई भाग या संपत्ति का कोई भाग टूट-फूट जाता है. घर के किसी कोने में या स्थान में आग लग जाती है. यह छोटे स्तर पर ही होती है. किसी लाल रंग की वस्तु या अन्य किसी प्रकार से मंगल के कारकत्व वाली वस्तु खो जाती है या नष्ट हो जाती है.

घर के किसी भाग का या ईंट का टूट जाना.

हवन की अग्नि का अचानक बंद हो जाना.

अग्नि जलाने के अनेक प्रयास करने पर भी अग्नि का प्रज्वलित न होना या अचानक

जलती हुई अग्नि का बंद हो जाना.

वातजन्य विकार अकारण ही शरीर में प्रकट होने लगना.

किसी प्रकार से छोटी-मोटी दुर्घटना हो सकती है.

उपाय-

*  मंगल के देवता हनुमान जी हैं, अंत: मंदिर में लड्डू या बूंदी का प्रसाद वितरण करें. हनुमान चालीसा. हनुमान मंदिर में गुड़-चने का भोग लगाएं.

* यदि संतान को कष्ट या नुक्सान हो रहा हो तो नीम का पेड़ लगाएं, रात्रि सिरहाने जल से भरा पात्र रखें एवं सुबह पेड़ में डाल दें.

* पितरों का आशीर्वाद लें. बड़े भाई एवं भाभी की सेवा करें, फायदा होगा.

 * लाल कनेर के फूल, रक्त चंदन आदि डाल कर स्नान करें.

* मूंगा, मसूर की दाल, ताम्र, स्वर्ण, गुड़, घी, जायफल आदि दान करें.

एक समय बिना नमक का भोजन करें.

मीठी रोटी (गुड़ व गेंहू की), तांबे के बर्तन, लाल चंदन, केसर, लाल गाय आदि का दान करें.

* मंगल मंत्र ॐ क्रां क्रीं क्रौं स: भौमाया नम:.’ मंत्र के 40000 जप करें.

उपरोक्त मंत्र के अलावा मंगल के निम्र मंत्रों का जप भी कर सकते हैं-

 ॐ अंगारकाय नम:.’

अन्य उपाय : हमेशा लाल रुमाल रखें, बाएं हाथ में चांदी की अंगूठी धारण करें,

कन्याओं की पूजा करें और स्वर्ण न पहनें, मीठी तंदूरी रोटियां कुत्ते को खिलाएं,

ध्यान रखें, घर में दूध उबल कर बाहर न गिरे.

ये समस्त जानकारियां शास्त्र के अनुसार है|

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भगवान शिव की साकार रूप में पूजा लिंग स्वरुप में सबसे ज्यादा होती है. जहाँ इस लिंग रूप में भगवान ज्योति के रूप में विद्यमान रहते हैं उसको ज्योतिर्लिंग कहते हैं. कुल मिलाकर भगवान शिव के द्वादश (बारह) ज्योतिर्लिंग हैं- सोमनाथ, मल्लिकार्जुन, महाकालेश्वर, ओंकारेश्वर, केदारनाथ, भीमाशंकर, विश्वनाथ, त्रयम्बकेश्वर, वैद्यनाथ, नागेश्वर, रामेश्वर, घुश्मेश्वर. भगवान के अन्य लिंगों की पूजा की तुलना में ज्योतिर्लिंगों की पूजा करना अधिक उत्तम होता है. अगर नित्य प्रातः केवल इन शिवलिंगों के नाम का स्मरण किया जाय तो माना जाता है कि इससे सात जन्मों के पाप तक धुल जाते हैं. अगर आप इन शिवलिंगों के दर्शन नहीं कर पाते तो इनकी प्रतिकृति ( चित्र) लगाकर पूजा करने से भी आपको अपार लाभ हो सकता है.

घर में द्वादश ज्योतिर्लिंगों के चित्र लगाने के नियम क्या हैं?

– चित्र को पूर्व या पश्चिम दिशा की ओर लगायें

– एक साथ सभी ज्योतिलिंगों के चित्र न लगायें

– अपनी राशी के अनुसार अगर आप ज्योतिर्लिंग का चित्र लगाते हैं तो ज्यादा बेहतर होगा

– आप ये चित्र सावन महीने में किसी भी दिन अन्यथा सोमवार, पूर्णिमा,या शिवरात्री को लगा सकते हैं

– जहाँ पर इस ज्योतिर्लिंग का चित्र लगायें बेहतर होगा कि वहां पर कोई और चित्र या देवी देवता की स्थापना न करें

किस प्रकार ज्योतिर्लिंगों के समक्ष पूजा उपासना की जायेगी?

– ज्योतिर्लिंग के समक्ष एक बड़ा पात्र रख लें

– सबसे पहले भगवान शिव का ध्यान करके उसी पात्र में बेलपत्र,फल,धूप आदि अर्पित करें

– फिर भगवान शिव का नाम जपते हुए उसी पात्र में दोनों हाथों से जल डालें

– इसके बाद भगवान शिव के किसी मंत्र की कम से कम ३ या अधिक से अधिक ११ माला का जाप करें

– जप के पश्चात भगवान शिव का ध्यान करें

– सबसे अंत में द्वादश ज्योतिर्लिंगों का नाम लें और तब क्षमा प्रार्थना करें

विशेष प्रयोजनों के लिए किस ज्योतिर्लिंग के चित्र की स्थापना करें?

– बीमारी से मुक्ति पाने के लिए – श्री वैद्यनाथ

– शाप से मुक्ति पाने के लिए – श्री सोमनाथ

– आयु रक्षा और स्वास्थ्य के लिए – श्री महाकाल

– मुकदमों,प्रतियोगिता और शत्रु विजय के लिए – श्री रामेश्वरम

– हर प्रकार की ग्रहों की पीड़ा से मुक्ति के लिए – श्री विश्वनाथ

राशि अनुसार किस ज्योतिर्लिंग का चित्र लगाना और पूजा करना उत्तम होगा?

मेष- श्री रामेश्वरम का चित्र

वृष- श्री सोमनाथ का चित्र

मिथुन- श्री त्रयम्बकेश्वर का चित्र

कर्क- श्री महाकाल का चित्र

सिंह- श्री मल्लिकार्जुन का चित्र

कन्या- श्री ओंकारेश्वर का चित्र

तुला- श्री नागेश्वर का चित्र

वृश्चिक- श्री केदारनाथ का चित्र

धनु- श्री घुश्मेश्वर का चित्र

मकर- श्री भीमाशंकर का चित्र

कुम्भ- श्री विश्वनाथ का चित्र

मीन- श्री वैद्यनाथ का चित्र


वेद के अध्ययन पर विचार करें, तो राहु का अधिदेवता काल और प्रति अधिदेवता सर्प है, जबकि केतु का अधिदेवता चित्रगुप्त एवं प्रति के अधिदेवता ब्रह्माजी है. राहु का दायां भाग काल एवं बायां भाग सर्प है. राहु एवं केतु सर्प ही है और सर्प के मुंह में जहर ही होता है.

जब प्रसन्न हो राहु-केतु: इससे यह सिद्ध होता है कि राहु-केतु जिस पर प्रसन्न है, उसको संसार के सारे सुख सहज में दिला देते है एवं इसके विपरीत राहु-केतु (सर्प) क्रोधित हो जाए,तो मृत्यु या मृत्यु समान कष्ट देते हैं. सृष्टि का विधान रहा है, जिसने भी जन्म लिया है, वह मृत्यु को प्राप्त होगा. मनुष्य भी उसी सृष्टि की रचना में है, अत: मृत्यु तो अवश्यभांवी है. उसे कोई नहीं टाल सकता है. परंतु मृत्यु तुल्य कष्ट ज्यादा दुखकारी है.

क्या कहते हैं शास्त्र:– शास्त्रानुसार जो जातक अपने माता-पिता एवं पितरो की सच्चे मनसे सेवा करते है, उन्हें कालसर्प योग अनुकूल प्रभाव देता है. जो उन्हें दुख देता है, कालसर्प योग उन्हें कष्ट अवश्य देता है. कालसर्प के कष्ट को दूर करने के लिए कालसर्प की शांति अवश्य करना चाहिए एवं शिव आराधना करना चाहिए.

प्रेम विवाह में सफल होने के लिए: यदि आपको प्रेम विवाह में अडचने आ रही हैं तो : शुक्ल पक्ष के गुरूवार से शुरू करके विष्णु और लक्ष्मी मां की मूर्ति या फोटो के आगे “ऊं लक्ष्मी नारायणाय नमः” मंत्र का रोज़ तीन माला जाप स्फटिक माला पर करें. इसे शुक्ल पक्ष के गुरूवार से ही शुरू करें. तीन महीने तक हर गुरूवार को मंदिर में प्रसाद चढाएं और विवाह की सफलता के लिए प्रार्थना करें.

परेशान करना बंद कर देंगे राहु, अगर आप करेंगे शिव की आराधना…

राहु ग्रह भगवान शिवशंकर के परम आराधक है. अत: जब राहु ग्रह परेशान कर रहा हो तो जातक को शिवजी की आराधना करनी चाहिए. निम्न 9 उपायों को करने से राहु ग्रह की शांति बहुत ही कम समय में हो जाती है. आइए जानें…

* अगर आपके जन्मांक में राहु, चंद्र, सूर्य को दूषित कर रहा है तो जातक को भगवान शिवशंकर की सच्चे मन से आराधना करना चाहिए

* सोमवार को व्रत करने से भी भगवान शिवशंकर प्रसन्न होते हैं. अतः सोमवार को शिव आराधना पूजन व्रत करने के पश्चात, शाम को भगवान शिवशंकर को दीपक लगाने के पश्चात् सफेद भोजन खीर, मावे की मिठाई, दूध से बने पदार्थ ग्रहण करना चाहिए.

* भगवान भोले शंकर भक्त की पवित्र श्रद्धा पूर्ण आराधना से तत्काल प्रसन्न होने वाले देव है.

* अतः बगैर ढोंग दिखावे के निर्मल हृदय से सच्ची आस्था के साथ भगवान शिव का स्मरण करना चाहिए.

* राहु महादशा में सूर्य, चंद्र तथा मंगल का अंतर काफी कष्टकारी होता है, अतः समयावधि में नित्य प्रतिदिन भगवान शिव को बिल्व पत्र चढ़ाकर दुग्धाभिषेक करना चाहिए.

* जातक को शिव साहित्य जैसे- शिवपुराण आदि का पाठ करना चाहिए.

* ॐ नमः शिवाय मंत्र का नाम जाप लगातार करते रहना चाहिए.

* राहु की महादशा अथवा अंतर प्रत्यंतर काफी कष्टकारी हों तब भगवान शिव का अभिषेक करवाना चाहिए.

* भगवान शिव की प्रभु श्रीराम के प्रति परम आस्था है, अतः राम नाम का स्मरण भी राहु के संकटों से मुक्ति दिलाने में सहायक होता है.


भारतीय कालगणना के मतानुसार चार स्वयंसिद्ध अभिजीत मुहूर्त हैं- चैत्र शुक्ल प्रतिपदा अर्थात गुडीपाडवा, आखातीज अथवा अक्षय तृतीया, दशहरा एवं दीपावली के पूर्व की प्रदोष तिथि.

भारतीय लोक-मानस सदैव से ऋतु पर्व मनाता रहा है. हर ऋतु के परिवर्तन को मंगलभाव के साथ मनाने के लिए व्रत, पर्व और त्योहारों की एक श्रृंखला लोकजीवन को निरंतर आबद्ध किए हुए हैं. इसी श्रृंखला में अक्षय तृतीया का पर्व वसंत और ग्रीष्म के संधिकाल का महोत्सव है. वैशाख शुक्ल तृतीया को मनाया जाने वाला व्रत-पर्व लोक में बहुश्रुत एवं मान्य है. विष्णु धर्मसूत्र, मत्स्य पुराण, नारद पुराण तथा भविष्य पुराण में इसका विस्तृत उल्लेख किया गया है तथा इसकी कई कथाएं प्रचलित है. सनातन धर्मी जन गृहस्थजन इसे बड़े उत्साह से मनाते हैं. अक्षय तृतीया को दिए गए दान और किए गए स्नान, जप, हवन आदि कर्मों का शुभ और अनंत फल मिलता है. भविष्य पुराण के अनुसार सभी कर्मों का फल अक्षय हो जाता है, इसलिए इसका नाम अक्षय पड़ा है. इस बार अक्षय तृतीया बुधवार 18 अप्रैल 2018 को है. सूर्योदय पूर्व से लेकर रात्रि में  3:03 बजे तक रहेगी.

वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को अक्षय तृतीया या आखातीज  कहते हैं. अक्षय का शाब्दिक अर्थ है जिसका कभी क्षय ना हो अर्थात जो स्थाई बना रहे. स्थाई वहीं रह सकता जो सर्वदा सत्य है. यह बातें निश्चित रूप से कही जा सकती है कि सत्य केवल परमात्मा ही है जो अक्षय, अखंड और व्यापक है. यह अक्षय तृतीया तिथि ईश्वर तिथि है. यह  अक्षय तिथि परशुराम जी का जन्मदिन होने के कारण परशुराम तिथि भी कही जाती है. परशुराम जी की गिनती महात्माओं में की  जाती है. अतः यह तिथि चिरंजीवी तिथि भी कहलाती है. चारों युगों सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलयुग में से त्रेता युग का आरंभ इसी आखातीज से हुआ है. त्रेतायुग का आरंभ अक्षय तृतीया  को हुआ है. जिससे इस तिथि को युग की आरंभ की तिथि ‘युगादितिथि’ भी कहते हैं.

अक्षय तृतीया को चारों धामों में से उल्लेखनीय एक धाम भगवान श्रीबद्रीनारायण के पट खुलते हैं. दर्शनार्थियों एवं भक्तों की अपार भीड़ रहती है. भक्तों के द्वारा इस दिन किए हुए पुण्य कार्य, त्याग, दान-दक्षिणा, होम- हवन, गंगा स्नान आदि कार्य अक्षय की गिनती में आ जाते हैं. भगवान भक्तों का प्रसाद प्रेम से ग्रहण करते हैं.

अक्षय तृतीया को वृंदावन में श्री बिहारी जी के चरणों के दर्शन वर्ष में एक बार होते हैं. देश के कोने-कोने से श्रद्धालु भक्त चरण दर्शन के लिए वृंदावन पधारते हैं. आत्मविश्लेषण और आत्मनिरीक्षण का यह दिन हमें  स्वयं का मंथन करने के लिए, आत्मानुशासन एवं अवलोकन की प्रेरणा देने वाला है. यह दिन  ‘निज मनु मुकुरु सुधारि’ का  दिन है. क्षय के कार्यों के स्थान पर अक्षय कार्य करने का दिन है. इस दिन हमें देखना-समझना होगा कि भौतिक रूप से दिखाई देने वाला यह स्थूल शरीर और संसार की समस्त वस्तुओं से क्षयधर्मा है, अक्षय धर्मा नहीं हैं. क्षयधर्मा  वस्तुएं  असद्भावना, अशुद्ध विचार, अहंकार, स्वार्थ, काम, क्रोध तथा लोभ पैदा करती है जिन्हें भगवान श्री कृष्ण ने गीता में आसुरी वृत्ति कहा है. जबकि अक्षयधर्मा सकारात्मक चिंतन- मनन हमें दैवीसंपदा की ओर ले जाता है. हम त्याग, परोपकार, मैत्री, करुणा और प्रेम पाकर परम शांति पाते हैं, अर्थात हमें दिव्य गुणों की प्राप्ति होती है. इस दृष्टि से यह तिथि हमें जीवन मूल्यों का वर्णन करने का संदेश देती है-  सत्यमेव जयते की ओर अग्रसर करती है.

अक्षय तृतीया का दिन सामाजिक पर्व का दिन है. इस दिन कोई दूसरा मुहूर्त ना देख कर स्वयं सिद्ध अभिजीत शुभ मुहूर्त के कारण विवाह उत्सव आदि मांगलिक कार्य संपन्न किए जाते हैं. गीता स्वयं एक अक्षय, अमर निधि  ग्रंथ है. जिसका पठन-पाठन, मनन एवं स्वाध्याय करके हम जीवन की पूर्णता को पा सकते हैं. जीवन की सार्थकता को समझ सकते हैं और अक्षय तत्व को प्राप्त कर सकते हैं. अक्षय के समान हमारा संकल्प दृढ़,  श्रद्धापूर्ण एवं हमारी निष्ठा अटूट होनी चाहिए. तभी हमें व्रतों प्रवासियों व्रत-उपवास का समग्र आध्यात्मिक फल प्राप्त हो सकता है. शास्त्र में उल्लेखित है कि आज के दिन स्वर्ण की खरीदारी भी करनी चाहिए. धन योग बनता है. धन-संपदा में वृद्धि का योग भी बनता है. आज के दिन जो भी कार्य मनुष्य करता है, वह अक्षय हो जाता है. इसलिए धार्मिक एवं शुभ कार्य आज के दिन जरूर करना चाहिए. मरणोपरांत व्यक्ति जीवन मृत्यु के बंधन से मुक्त होकर वैकुंठ लोक को प्राप्त कर लेता है.

 


अक्षय तृतीया पर्व को कई नामों से जाना जाता है. इसे अखातीज और वैशाख तीज भी कहा जाता है. इस पर्व को भारतवर्ष के खास

त्योहारों की श्रेणी में रखा जाता है. इस दिन स्नान, दान, जप, होम आदि अपने सामर्थ्य के अनुसार जितना भी किया जाए, अक्षय रूप में प्राप्त होता है.

क्या है अक्षय तृतीया

अक्षय तृतीया वैशाख मास में शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को कहते हैं. इस दिन जो भी शुभ कार्य किए जाते हैं, उनका अक्षय फल मिलता है. सतयुग और त्रेता युग का प्रारंभ इसी तिथि से हुआ है. भगवान विष्णु ने नर-नारायण, हृयग्रीव और परशुराम का अवतरण भी इसी तिथि को हुआ था. बद्रीनाथ की प्रतिमा स्थापित कर पूजा की जाती है और श्री लक्ष्मी नारायण के दर्शन किए जाते हैं. प्रसिद्ध तीर्थ स्थल बद्रीनारायण के कपाट भी इसी तिथि से ही पुनः खुलते हैं.

इसी दिन से त्रेता युग की हुई थी शुरुआत
माना जाता है कि इस दिन त्रेता युग की शुरुआत हुई थी. अमूमन परशुराम का जन्मदिन भी इसी दिन आता है. इस दिन सभी विवाहित और अविवाहित लड़कियां पूजा में भाग लेती हैं. इस दिन लोग भगवान गणेश और देवी लक्ष्मी की पूजा करते हैं. कई लोग इस दिन महालक्ष्मी मंदिर जाकर सभी दिशाओं में सिक्के उछालते हैं. सभी दिशाओं में सिक्के उछालने का कारण यह माना जाता है कि इससे सभी दिशाओं से धन की प्राप्ति होती है.

क्‍यों किया जाता है दान
शास्‍त्रों के अनुसार इस खास दिन आप जितना दान-पुण्य करते हैं, आपको उससे कई गुना ज्यादा धन-वैभव मिलता है. इस दिन लोग सोने-चांदी के आभूषण भी खरीदते हैं.
एक पुरातन कथा तो यह भी है कि आज के ही दिन भगवान शिव से कुबेर को धन मिला था और इसी खास दिन भगवान शिव ने माता लक्ष्मी को धन की देवी का आशीर्वाद भी दिया था.

आइए जानें, इस खास दिन दान करने से क्‍या पुण्‍य प्राप्‍त होता है…

– इस दिन दान करना आपको मृत्यु के भय से काफी दूर रखता है.
– कहते हैं इस दिन गरीब बच्चों को दूध, दही, मक्खन, छेना, पनीर आदि का दान करने से मां सरस्वती का आशीर्वाद प्राप्त होता है.
– अक्षय तृतीया के दिन विशेषकर जौ, तिल और चावल का दान महत्वपूर्ण माना जाता है.
– गंगा स्नान के बाद सत्तू खाने और जौ और सत्तू दान करने से आप अपने पाप से मुक्त होते हैं.

 


शास्त्रों के अनुसार, सबसे पहले रामभक्त हनुमान ने ही रामायण की रचना की थी। लेकिन उन्होंने अपनी लिखी रामायण को अपने हाथों से ही समुद्र में फेंक दिया था। उनके ऐसा करने के पीछे क्या कारण था यहां जानते हैं…

भगवान राम की लीला का वर्णन करते हुए कई रामायण लिखी गई हैं। जो भगवान राम के बारे में जितना जानता था उसने उसी अनुसार रामायण की रचना की। हममे से अधिकतर लोग वाल्मीकि रामायण के बारे में ही जानते हैं। लेकिन बाल्मिकी जी तो अयोध्यापुरी में रहते थे, ऐसे में दंडकारण्य में रामजी के साथ क्या-क्या घटा यह दंडकारण्य के ऋषि ही जानते थे। इस तरह अनेक रामायण अस्तित्व में आईं।

सभी रामायणों में वाल्मीकि रामायण को मान्यता मिली क्योंकि वह महान ऋषि थे और उन्हें खुद भगवान हनुमान ने वरीयता दी थी।

शास्त्रों के अनुसार, भक्त शिरोमणि हनुमान द्वारा लिखी गई रामायण को हनुमद रामायण के नाम से जाना जाता है। हनुमानजी ने इस रामायण की रचना तब की जब रावण पर विजय प्राप्त करने के बाद भगवान राम अयोध्या पर राज करने लगे थे।

रामाज्ञा पाकर हनुमानजी तपस्या करने हिमालय पर चले गए थे। वहां शिव आराधना के दौरान वह हर दिन रामायण की कथा अपने नाखूनों से पत्थर की शिला पर लिखते थे।

एक दिन हनुमानजी यह शिला उठाकर कैलाश पर्वत पर ले जाते हैं और भगवान शिव को दिखाते हैं। कुछ समय बाद वाल्मीकि जी भी अपनी रामायण लेकर शिव के समक्ष जाते हैं। ऐसे में ऋषिवर देखते हैं कि वहां पहले से शिला पर रामायण लिखी हुई है, जो स्वयं रामभक्त हनुमान ने लिखी। यह देख वह निराश होकर लौटने लगते हैं।

उन्हें निराश होकर जाता देख हनुमानजी उनसे इसका कारण पूछते हैं, तब ऋषि वाल्मीकि कहते हैं, भगवन बहुत तपस्या के बाद मैंने यह रामायण लिखी थी लेकिन आपकी रामायण के आगे मेरी लिखी रामायण तो कुछ भी नहीं। देखकर ही लगता है कि आपकी लिखी रामायण के आगे मेरी रामायण उपेक्षित हो जाएगी।

यह सुनकर हनुमानजी को बहुत कष्ट हुआ। तब उन्होंने एक कंधे पर अपनी रामायण लिखी शिला को उठाया और दूसरे कंधे पर ऋषि वाल्मीकि को बैठाकर समुद्र में ले गए।

वहां हनुमानजी ने ऋषि वाल्मीकि के सामने ही अपनी रामायण लिखी शिला को श्रीराम को समर्पित करते हुए समुद्र में फेंक दिया। बस इसीलिए हनुमद रामायण उपलब्ध नहीं है।


दक्षिण दिशा के स्वामी यमराज माने जाते हैं। वास्तु विज्ञान के मुताबिक दक्षिण की ओर पैर करके सोने और मुख करके बैठने से आपके आस-पास नकारात्मक ऊर्जा का संचार होता रहता है।

 वास्तुशास्त्र में दक्षिण दिशा को  शुभ नहीं माना जाता है। वास्तु विज्ञान के अनुसार इस दिशा के स्वामी यमराज माने जाते हैं।  इसे संकट का द्वार भी कहा जाता है। यही कारण है कि लोग अधिक कीमत देकर भी पूर्व दिशा की ओर मुंह वाला मकान खरीदना पसंद करते हैं और दक्षिण की ओर मुंह वाला घर कम कीमत में भी लेना पसंद नहीं करते हैं।

वास्तु विज्ञान के मुताबिक दक्षिण की ओर पैर करके सोने और मुख करके बैठने से आपके आस-पास नकारात्मक ऊर्जा का संचार होता रहता है। वास्तु विज्ञान में इसके पीछे का तर्क है कि पृथ्वी गुरुत्वाकर्षण बल पर टिकी है। वह अपनी धुरी पर लगातार घूमती है। इसकी धुरी के उत्तर-दक्षिण दो छोर हैं। यह चुंबकीय क्षेत्र होता है। इसलिए जब भी इंसान दक्षिण दिशा में पैर करके सोता है तो वह तो पृथ्वी की धुरी के समानांतर हो जाता है। इससे धुरी के चुंबकीय प्रभाव से रक्तप्रवाह प्रभावित होता है। इससे हाथ-पैर में दर्द, कमर दर्द, शरीर का कांपना आदि जैसे दोष हो जाते हैं।

दक्षिण की तरफ मुख्य द्वार
घर का मुख्य दरवाजा कभी भी दक्षिण दिशा की तरफ नहीं होना चाहिए। यदि आपका दरवाजा दक्षिण की तरफ है तो द्वार के ठीक सामने एक आदमकद दर्पण इस प्रकार लगाएं जिससे घर में प्रवेश करने वाले व्यक्ति का पूरा प्रतिबिंब दर्पण में बने। इससे घर में प्रवेश करने वाले व्यक्ति के साथ घर में प्रवेश करने वाली नकारात्मक उर्जा पलटकर वापस चली जाती है। द्वार के ठीक सामने आशीर्वाद मुद्रा में हनुमानजी की मूर्ति अथवा तस्वीर लगाने से भी दक्षिण दिशा की ओर मुख्य द्वार का वास्तुदोष दूर होता है।

मंद होती है फेफड़ों की गति  
दक्षिण दिशा में सोने से फेफड़ों की गति मंद हो जाती है। इसीलिए मृत्यु के बाद इंसान के पैर दक्षिण दिशा की ओर कर दिए जाते हैं ताकि उसके शरीर से बचा हुआ जीवांश समाप्त हो जाए। दक्षिण, यम की दिशा मानी जाती है। हिन्दू शास्त्रों के अनुसार यम को मृत्यु का देवता माना जाता है। इसके अलावा यदि आपकी तिजारो इस दिशा में है तो बरकत एवं लाभ के लिए दिशा बदल लेनी चाहिए। वहीं, शौचालय में सीट इस प्रकार रखनी चाहिए कि शौच करते वक्‍त मुख उत्‍तर या दक्षिण दिशा की ओर रहे और दरवाजा सदैव बंद रखना चाहिए।


हनुमान जयंती को बजरंग बली के जन्‍म के उपलक्ष्‍य में मनाया जाता है। जानें इसका मुहूर्त और पूजा में किन गलतियों से बचना चाहिए –

 दिनांक 31 मार्च को भक्ति के पर्याय और श्री राम दूत तथा संकटों को पल भर में दूर करने वाले श्रो हनुमान जी की जयंती है। राम काज कीन्हें बिनु मोहिं कहाँ विश्राम – ये दोहा बताता है कि श्री राम कार्य हेतु ही श्री हनुमान जी अवतार लेते हैं। श्री राम विष्णु के अवतार हैं तो श्री हनुमान जी रुद्रावतार। बिना हनुमान जी के भक्ति के श्री राम भक्ति पाना असंभव है।

माना जाता है कि श्री हनुमान ही मातंग ऋषी के शिष्य थे। सूर्य देव और नारद जी से भी इन्होनें कई गूढ़ विद्याएं सीखीं। चैत्र माह की पूर्णिमा को ही हनुमान जी का जन्म होने के कारण इसी दिन श्री हनुमान जयंती मनाते हैं। नवरात्रि के बाद तुरन्त माता की भक्ति के बाद भक्ति के पर्याय श्री हनुमान जी की भक्ति में साधक डूब जाते हैं और भक्ति के इस अलौकिक आनंद से प्रफुल्लित होते हैं।

क्‍या है हनुमान जयंती 2018 का मुहूर्त 
ज्‍योतिष के जानकार विनोद भारद्वाज बताते हैं क‍ि हनुमान जयंती 30 मार्च को सायंकाल 07:35 से 31 को शाम 06:06 मिनट तक रहेगी। उदय तिथि 31 को होने के कारण पूर्णिमा 31 को ही मनाई जाएगी और उसी दिन पूरी रात्रि और पूरा दिन श्री हनुमान जयंती मनाई जाती है। 31की रात्रि को पूजा का विशेष फल है क्योंकि चैत्र पूर्णिमा की रात्रि में ही हनुमान जयंती मनाने का प्रावधान है।


पूजा के दौरान ना करें ये भूल 
महावीर हनुमान को महाकाल शिव का 11वां रुद्रावतार माना गया है। इनकी विधिवत् उपासना करने से सभी बाधाओं का नाश होता है। ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए हनुमान जयंती के दिन हनुमान चालीसा या सुन्दरकांड का पाठ करना चाहिए। लेकिन इस दौरान इन गलतियों से बचना चाहिए :

  •  हनुमान जयंती के द‍िन अगर व्रत रखते हैं तो इस दिन नमक का सेवन नहीं करना चाहिए। जो भी वस्‍तु दान दें विशेष रूप से मिठाई तो उस दिन स्‍वयं मीठे का सेवन ना करें।
  • राम भक्‍त हनुमान सीता जी में माता का दर्शन करते थे और बाल ब्रह्मचारी के रूप में स्‍त्रियों के स्‍पर्श से दूर रहते हैं। इसलिए माता स्‍वरूप स्‍त्री से पूजन करवाना और उनका स्‍पर्श करना वे पसंद नहीं करते। फिर भी यदि महिलाएं चाहे तो हनुमान जी के चरणों में दीप प्रज्‍जवलित कर सकती हैं।  लेकिन उन्‍हें ना तो छुएं और ना ही उन्‍हें तिलक करें। महिलाओं का हनुमान जी को वस्‍त्र अर्पित करना भी वर्जित है।
  • काले या सफ़ेद वस्त्र धारण करके हनुमान जी की पूजा न करें। ऐसा करने पर पूजा का नकरात्मक प्रभाव पड़ता है। हनुमान जी की पूजा लाल और यदि लाल ना हो तो पीले वस्‍त्र में ही करें।
  • हनुमान जी की पूजा में शुद्धता का बड़ा महत्‍व है। इसलिए हनुमान जयंती पर उनकी पूजा करते समय अपना तन मन पूरी तरह स्‍वच्‍छ कर लें। इसका मतलब है कि मांस या मदिरा इत्यादि का सेवन करके भूल से भी ना तो हनुमान जी के मंदिर ना जाये और ना घर पर उनकी पूजा न करें। पूजन के दौरान गलत विचारों की ओर भी मन को भटकने न दें।
  • यदि आप का मन अशांत है और आप क्रोध में है तब भी हनुमान जी की पूजा न करें। शांतिप्रिय हनुमान को ऐसी पूजा से प्रसन्‍नता नहीं होती और उसका फल नहीं मिलता।
  • हनुमान जी की पूजा में चरणामृत का प्रयोग नहीं होता है। साथ खंडित अथवा टूटी मूर्ति की पूजा करना भी वर्जित है।


चन्द्रमा यदि हमारे कुंडली में अशुभ स्थिति में हो तो कई तरह की समस्या का सामना करना पड़ता है। ज्योतिष शास्त्र में चन्द्रमा को मन का करक माना गया है। आई हम जानेंगे किस प्रकार अपने कुंडली में चन्द्रमा को मजबूत कर सकते हैं।

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