Tripindi Shradh (त्रिपिंडी श्राद्ध)

अपने पितरों को प्रसन्न करने के लिए धर्म और शास्त्रों के अनुसार हविष्ययुक्त पिंड को प्रदान करना ही श्राद्ध  कहलाता है। जब हम श्रद्धा करते हैं तो इससे हमारे पितरों को शांति मिलती हैं और वे हमेशा प्रसन्न रहते हैं और हमें हमेशा दीर्घायु, प्रसिद्धि एवं कुसलता प्रदान करते हैं।

 

त्रिपिंडी श्राद्ध क्या है?

त्रिपिंडी श्रद्धा एक काम्य श्रद्धा है। जब कभी लगातार किसी कारण से पितरों का श्रद्धा लगातार तीन या उससे अधिक साल तक छूट जाता है तब पितरों के अंदर प्रेतत्व वाश करने लगता है, जिसे दूर करने के लिए ये श्रद्धा किया जाता है।

प्रेत योनियां तीन तरह की होती हैं, जिसे विभिन्न तरीकों से बताया गया है हमारे शास्त्रों में। यदि कोई प्रेत पृथ्वी पे वाश करते हैं तो इसे तमोगुणी कहा जाता है, अंतरिक्ष में स्थित पिशाच को रजोगुणी और वायुमंडल में स्थित प्रेत को सत्तोगुणी कहा जाता है। और इन तीनों के पीड़ा को कम करने के लिए जो निवारण किया जाता है उसे त्रिपिंडी श्राद्ध कहा जाता है।

संतान की प्राप्ति, बुरी नजरों से बचाव हेतु और यदि गौ हत्या का दोष है तो उसके निदान के लिए त्रिपिंडी श्राद्ध किया जाता है।

 

त्रिपिंडी करने के तरीके:

इस कर्म का आरम्भ सबसे पहले किसी पवित्र नदी में स्नान कर के शरीर को पवित्र किया जाता है। जिसे क्षौर  कर्म कहा जाता है। यह कर्म किसी पिशाच्चविमोचन तीर्थ अथवा कुशावर्त तीर्थपर किया जाता है। इस पूजा में त्रिदेव प्रमुख देवता रहते हैं। इस पूजा में इनकी प्रतिमा स्थपित कर के इनकी पूजा किया जाता है।  ये द्विविस्थ, अंतरिक्षस्थ, भूमिस्थ और सत्व, रज, तमोगुणी तथा बाल तरूण और वृध्द अवस्था के अनादिष्ट प्रेतों को सदगति देते है। इसलिए विधिवत एकोद्दिष्ट विधि से त्रिपिंडी श्राध्द किया जाता है। इस विधी से पूर्व गंगाभेट शरीर शुद्ध और प्रायश्चित्तादि कर्म किया जाता है। यहाँ क्षौर करने की जरूरत नही। किंतु प्रायश्चित्त अंगभूत क्षौर के लिए आता है। त्रिपिडी की विधी सपत्निक नूतन वस्त्र पहनकर किया जाता है। यह विधी जो अविवाहित है अथवा जिसकी पत्नी जीवित नही है उनके द्वारा किया जाता हैं। इस मे देवता ब्रम्हा (रौप्य) रूद्र (ताम्र) धातु की होती है।

ब्राह्मण से इन तीनों देवताओं के लिये मंत्रों का जाप करवाया जाता है। परेशान करने वाला पिशाचयोनि प्राप्त जो जीवात्मा है, उसका नाम एवं गोत्र ज्ञात न होने से उनके लिए अनाधिष्ट गोत्र शब्द‍ का प्रयोग किया जाता है। अंतत: इससे प्रेतयोनि प्राप्त उस जीवात्मा को सम्बोधित करते हुए यह श्राध्द किया जाता है। जौ तिल, चावल के आटे से तीन पिंड तैयार किये जाते हैं। जौ का पिंड समंत्रक एवं सात्विक होता हे, वासना के साथ प्रेतयोनि में गये जीवात्मा को यह पिंड दिया जाता है। चावल के आटे से बना पिंड रजोगुणी प्रेतयोनी में गए प्रेतात्माओ को प्रदान किया जाता है। इन तीनों पिंडो का पूजन करके अर्ध्यं देकर देवाताओं को अर्पण किये जाते है। हमारे कुलवंश को पिडा देने वाली प्रेतयोनि को प्राप्त जीवात्मा ओं को इस श्राध्द कर्म से तृप्ती हो और उनको सदगति प्राप्त हो, ऐसी प्रार्थना के साथ यह कर्म किया जाता है।

इस पूजा को श्रावण, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ, फाल्गुन और वैशाख मुख्य मास में किया जाता है। ५, ८, ११, १३, १४, ३० में शुक्ल तथा कृष्ण पक्ष की तिथीयाँ और रविवार दिन बताया गया है। किंतू तीव्र पिडा हो रही हो तो तत्काल त्रिपिंडी श्राध्द करना उचित है।

यह अनिवार्य है की त्रिपिंडी पूजा सिर्फ त्रिंबकेश्वर जैसे धनी जगह पे ही करना चाहिए|

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