Narayan Nagbali (नारायण नागबलि)

नारायण नागबलि ये दोनों ही विधि मनुष्य के अपूर्ण इच्छा को पूर्ण करने के उद्देश्य से किया जाता है। जिसमे की नारायणबलि की विधि मुलह्यतः पितृदोष के निवारण के लिए किये जाते है और नागबलि नाग या सर्प हत्या के प्रभाव और हत्या के दोष के निवारण के लिए किया जाता है। ये दोनों विधि कभी भी हम अलग-अलग नहीं कर सकते, इसे हमेशा एकसाथ ही करना चाहिए।

 

नारायण नागबलि पूजा के कारण:

  • अगर किसी के परिवार में किसी सदस्य का या पूर्वजों का अंतिम संस्कार, पिंडदान और तर्पण ठीक ढंग से नहीं हुआ हो तो पितृदोष उत्पन्न होता है। इस दोष को ख़त्म करने के लिए किया जाता है नारायणबलि।
  • परिवार के किसी सदस्य के आकस्मिक मृत्यु चाहे वो आत्महत्या हो, या पानी में डुबके हुई हो, या आग में जलने से हुई हो, या दुर्घटना में हुई हो तो भी दोष उत्पन्न होते हैं इसी दोष को ख़त्म करने के लिए ये पूजा किया जाता है।  
  • प्रेतयोनि से होने वाले कष्ट को दूर करने के लिए।
  • संतान की प्राप्ति के लिए।

 

पितृदोष के निवारण को ख़त्म करने के लिए नारायण-नागबलि कर्म करना हमारे शास्त्रों में उल्लेखित किया गया है।  यह कर्म किसी भी जातक के सभी दुर्भाग्यों को ख़त्म करने के लिए किया जाता है।  लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात ये है की ये कर्म किसी भी परिवार में किसे करना ही इसकी जानकारी अवश्य होनी चाहिए।

 

  • शास्त्रों में पितृदोष के निवारण के लिए ये कर्म करने का विधान को बताया गया है। ये कर्म वे लोग भी अपने पूर्वजों के लिए कर सकते हैं जिनके पता-पिता जीवित हो, ताकि उसके और उसके माता-पिता और पुरे परिवार पे उनका आशीर्वाद बना रहे।

 

  • संतान की प्राप्ति, कर्ज से मुक्ति, कार्य में आ रहे बाधाओं के निवारण के लिए कोई भी यह कर्म अपने पत्नी के साथ कर सकता है। यदि पत्नी जीवित न हो तो कुल के उन्नति और उसके उद्धार के लिए पत्नी के बिना भी इसे किया जा सकता है।

 

  • अगर किसी की पत्नी गर्भवती हो और वो ये कर्म करना च रहा है तो ये कर्म किया जा सकता है, लेकिन उसकी पत्नी पाचवें महीने या उससे कम महीने की गर्भवती होनी चाहिए। अगर घर में कोई मांगलिक कार्य हो तो इसे एक साल तक नहीं किया जा सकता है। माता-पिता की मृत्यु के एक साल तक भी इस कार्य को करना निषिद्ध माना गया है।

 

नारायण बलि कर्म के विधि हेतु मुहूर्त :

सामान्यतः इसे पौष तथा माघ के महीने में और गुरु, शुक्र के अस्तंगत होने पे नहीं किया जाता है। लेकिन कर्म के लिए केवल नक्षत्रों के गुण और उसे दोष को देखना ही उचित है। धनिष्ठा नक्षत्र के अन्त के दो चरण, शततारका , पुर्वाभाद्रपदा, उत्तराभाद्रपदा एवं रेवती इन साढे चार नक्षत्रों को ही धनिष्ठा पंचक कहा गया है। कृतिका, पुनर्वसु उत्तरा विशाखा, उत्तराषाढा और उत्‍तराभाद्रपदा ये छ: नक्षत्र ही ‘त्रिपाद नक्षत्र’ माने गये है।

 

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